धरती से उपजी
जीवन को उपजती
सबसे अलग
सबसे अनुपम, अप्रतीम
जीवन की नीरवता में भरा
कल-कल का संगीत
कोरे-समतल मैदानों में बिखेरी कलाएँ
भरी कठोर पहाड़ो में कोमलता
उत्सवों में भरे रंग
सभ्यता को आकार दिया
पर यह क्या?!
हमने पैदा किये
एक-एक नदी पर कई ठहराव
और रोका आगाध बहाव
यह जानते हुए भी
कि
‘जो जड़ है वह नष्ट हो जाता है,
जो गतिमान है, वह नष्ट नहीं होता’*
और इस तरह
हुई हत्या हरेक की
कई-कई बार
और
हुआ श्रेष्टता का
नंगा नाच।
* प्रो. एम् एम् कलबुर्गी के लिखे बसवन्ना के जीवन पर आधारित नाटक ‘केट्टितू कल्याण’ (कल्याण का पतन) में बार-बार टेक की तरह दोहराई जाती है. इन पंक्तियों में श्री कलबुर्गी का जीवन-दर्शन गूंजता है.
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