Friday 5 February 2016

थोपी गई सभ्यता के विरुद्ध

बगीचे में
जब भी बढ़े पेड़ पौधे
ढंग बेढंगे रूप में
उन्हें कटा गया करीने से,
कैंची से
खास आकार में
अलग स्वरूप देकर

कटने के तुरंत बाद
हर पेड़ पौधा
जिसे काटा गया था
खास आकार में
अलग रूप देकर,
बगावत करता है
बढ़ना शुरू करता है
उसी ढंग बेढंगे रूप के लिए
जिसे हम असभ्य कहते हैं
असुंदर कहते हैं

बार बार हुए
युद्ध में
जब धार भोथरा जाती हैै कैंची की
उसे धारदार बनाया जाता है
और
फिर काटा जाता है
असभ्य दीखते पेड़ पौधों को

लेकिन
बगावत फिर होती है
हर बार होती है
थोपी गई सभ्यता के विरुद्ध
'सभ्य' बनाये जाने के खिलाफ

Wednesday 3 February 2016

आखिरी मुलाक़ात

किसी ठण्ड भरी अलसाई सुबह
जब फैली थी कुहरे की उदासी,
पसरी थी वही रोज की भिनभिनाहट
बह रही थी विषाद की घुटन भरी हवा
उड़ रहे थे बदमिजाज़ी के बादल
चमक रहा था औपचारिकता का सूरज

किसी रेस्तरां में
झालर लगे पर्दे
लगते हैं जेल की सीकचें जैसे
मंद सूरज जिन्हें उकेरता है
तुम्हारे चेहरे पर

तुम कुछ कहती हो
पर मैं नहीं सुनता
तुम्हारी आवाज
शायद कहीं फँस गई है सीकचों के बीच

मैं देखता हूँ
टिम-टिमाता हुआ तुम्हारा बैचैन चेहरा
दूर तारों के मानिंद

मैं छूना चाहता हूँ
तुम्हारे गोरे हाथ
तभी तुम उठाती हो
कॉफ़ी का कप
मेरी तरफ देखती हो
मैं हाँफता हूँ
महसूस करता हूँ
हमारे बीच सीकचों को
अब अपने आप को पाता हूँ
कैद
उन्ही सीकचों में

दूर दो नदियाँ मिलती हैं
एक होकर बहती हैं
इसके ठीक उलट
हम बहे
दोआब बनाकर
नदी से नदियाँ होकर

नईं फिल्म

बंजर खेत...

खूब मेहनत की गई
खून-पसीने से सींचा गया
कई जीवन लगे
कई पीढ़ियाँ लगी
फिर हुआ
बंजर खेत उपजाऊ,
बीज के लायक।

बोये गए बीज
उम्मीदों के साथ,
आँखों में कुछ सपने लेकर;
गीत गाये गए
जिनमे सुर थे इन्हीं सपनों के
संगीत था खुशहाली का
उम्मीद का
जोश का
वर्षों की मेहनत खून पसीने के सफल होने का

अब हर दिन
माना जाता सफलता का दिन
और
वो दिन भी आया
जब धरती ने उगला सोना
उगला हीरा मोती
जब धरती से अंकुर फूटा;
फिर नाच हुआ
गान हुआ
एक और मौका मिला खुश होंने का

अंकुर बढ़ने लगा
पेड़ हुआ...
वर्षों का खून दिखने लगा
जड़ से पत्तियों तक में;
मेहनत की मजबूती
तनों में;
पसीने की खुसबू उड़ी
फूलों से;

अब फलों के पकने का इंतजार था,
लेकिन यह क्या!
जो फल थे पहुँच तक वे सड़ने लगे
जो थे पहुँच से बाहर वही पके

घोर निराशा
वितृष्णा
घृणा
सब जगह फैली
सब सपने टूटे
आशाएँ भ्रम ही रही

लोग भूल रहे हैं इतिहास
भूल रहे हैं खून पसीने की मेहनत
भूल रहे हैं ख़त्म हुए जीवन
खत्म हुई पीढियां भूल रहे हैं
वे जीने लगे खेत को बंजर मानकर
नीयति को दोष देकर

अब कुछ लोग हैं
जिन्होंने नईं फिल्म बनाई है
फिल्म बंजर खेत के उपजाऊ होने के इतिहास पर
नायक खूब मेहनत करता है फिल्म में
खूब पसीना बहाता है,
नायक की मेहनत से भी
उपजाऊ हुआ बंजर खेत,
खेत ने उगला सोना
उगला हीरा मोती
अंकुर भी खेत से फूटा
यह पेड़ हुआ
इसमें फल लगे
लेकिन कोई भी फल नहीं सड़ा
और ये फल सबकी पहुँच में थे
यहीं फिल्म का सुखद अंत होता है

यह फिल्म दिखाई जा रही है हमें बार बार
फ़िल्मी इतिहास को बताया जा रहा है
हमारा इतिहास
फ़िल्मी नायक को भी बताया जा रहा है
हमारा नायक

ये वही हैं
जो इतिहास में कहीं नहीं थे
मेहनत करते हुए कहीं नहीं थे
न खून बहाते हुए न पसीने से भीगते हुए;
लेकिन ये सत्ता में हैं।

धार्मिक

वह पैदा हुआ
इन्सान के जैसे
बड़ा हुआ
भेड़ के जैसे
उसने बुद्धि पाई
शुतुरमुर्ग की जैसी
अंत हुआ
मुर्गे के जैसे।

नदी (बहनों के लिए)


धरती से उपजी
जीवन को उपजती
सबसे अलग
सबसे अनुपम, अप्रतीम
जीवन की नीरवता में भरा
कल-कल का संगीत
कोरे-समतल मैदानों में बिखेरी कलाएँ
भरी कठोर पहाड़ो में कोमलता
उत्सवों में भरे रंग
सभ्यता को आकार दिया

पर यह क्या?!
हमने पैदा किये
एक-एक नदी पर कई ठहराव
और रोका आगाध बहाव
यह जानते हुए भी
कि
‘जो जड़ है वह नष्ट हो जाता है,
जो गतिमान है, वह नष्ट नहीं होता’*

और इस तरह
हुई हत्या हरेक की
कई-कई बार
और
हुआ श्रेष्टता का
नंगा नाच।

* प्रो. एम् एम् कलबुर्गी के लिखे बसवन्ना के जीवन पर आधारित नाटक ‘केट्टितू कल्याण’ (कल्याण का पतन) में बार-बार टेक की तरह दोहराई जाती है. इन पंक्तियों में श्री कलबुर्गी का जीवन-दर्शन गूंजता है.