Wednesday 3 February 2016

आखिरी मुलाक़ात

किसी ठण्ड भरी अलसाई सुबह
जब फैली थी कुहरे की उदासी,
पसरी थी वही रोज की भिनभिनाहट
बह रही थी विषाद की घुटन भरी हवा
उड़ रहे थे बदमिजाज़ी के बादल
चमक रहा था औपचारिकता का सूरज

किसी रेस्तरां में
झालर लगे पर्दे
लगते हैं जेल की सीकचें जैसे
मंद सूरज जिन्हें उकेरता है
तुम्हारे चेहरे पर

तुम कुछ कहती हो
पर मैं नहीं सुनता
तुम्हारी आवाज
शायद कहीं फँस गई है सीकचों के बीच

मैं देखता हूँ
टिम-टिमाता हुआ तुम्हारा बैचैन चेहरा
दूर तारों के मानिंद

मैं छूना चाहता हूँ
तुम्हारे गोरे हाथ
तभी तुम उठाती हो
कॉफ़ी का कप
मेरी तरफ देखती हो
मैं हाँफता हूँ
महसूस करता हूँ
हमारे बीच सीकचों को
अब अपने आप को पाता हूँ
कैद
उन्ही सीकचों में

दूर दो नदियाँ मिलती हैं
एक होकर बहती हैं
इसके ठीक उलट
हम बहे
दोआब बनाकर
नदी से नदियाँ होकर

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