Tuesday 5 November 2013

ग़ज़ल

तर्के लज्जत,अब जिद करले ज़रा सी जिदाइश के लिए,

अब तो ज़र्रा-ज़र्रा चीख़े,ज़रा-सी सुगबुगाहट के लिए!


दग्ध सूरज जल रहा है,थका हुआ अब चाँद भी,

अब तो इज़्हार अब तो करले आग लगाने के लिए!


आज कत्ले आम यहाँ भी, शहर वीरां तब वहाँ भी,

अब तो लाशोँ को जगा ले,जिनाजोँ को सुलाने के लिए!


खस्तः हाल अब ये जमीँ भी,और ये दर्या भी रोये,

अब तो दर्या को बदल ले,हुकूमत को गिराने के लिए!


दीवार टूटी,घर भी उजङे,खंडहर अब दिखे नहीं,

अब तो कतरः भी बहा ले,अजले रौसन के लिए

No comments:

Post a Comment