Monday, 24 February 2014

लोकतंत्र


हमारे घर पर थे
चार बैल
आठ गायें
पांच भैंसें
कुछ छोटे-बड़े बछड़े
कुछ छोटे-बड़े काटूर भी
दस-एक बकरियां
दस-एक भेड़ें
पता नहीं और क्या क्या
और कितने कितने

हर साल
कुछ नए पैदा होते
कुछ मर जाते
जरुरत के हिसाब से
कुछ बेचे जाते
और कुछ ख़रीदे भी जाते
और जरुरत के हिसाब से ही
कुछ मार भी दिए जाते

जानवरों के मरने पर
सबसे ज्यादा 
दुःख दादी को होता
फिर भी वह अपने को दिलासा देती
‘जिसके घर में ज्यादा होगे
तो मरेंगे भी ज्यादा’
उन्हें सच्चे अर्थो में
भारतीय लोकतंत्र की पहचान थी.

आरक्षण



आरक्षण के विरोध में
मंच से वे बोल रहे थे
‘जब इन कटुओं को,
इन डुमड़ों को,
इन चमारों को,
इन भंगियों को
इनका कोटा दे दिया गया है
इनका आरक्षण दे दिया गया है
इनको भीख हमने दे दी है
क्यों ये हमारी सीटों को
हथियाते हैं?
क्यों ये हमारी सीटों पर
कब्ज़ा करते हैं?
क्यों ये हमारा गू
खाते हैं?
क्यों ये हमारा
मूत पीते हैं?’

पानी पी पी कर
वे विरोध कर रहे थे
माथे पर पसीना पोछ पोछ
कर
वे विरोध कर रहे थे

पर पानी पीने से पहले,
पसीना पोछने से पहले
बिना कुछ कहे
वे मांग कर चुके थे
अपने लिए आरक्षण की.

Friday, 7 February 2014

ग़रीबी रेखा


एक रेखा खींच कर 
कहा गया
‘बिना बढ़ाये इसे बड़ा कीजिये!’

और खींच दी गई
एक छोटी रेखा
पहली के समान्तर

इसी खांचे में फिट
इसी नियम पर खींची गई
हर छोटी रेखा
ग़रीबी रेखा है!

स्त्री: गोरा बदन


किसके शब्दों को 
आवाज देकर
एक स्त्री कहती है कि
उसने पाया गोरा बदन और कोमल त्वचा
सिर्फ़ चार हफ़्तों में

किसके गले से
एक स्त्री मुस्कुराते हुए कहती है कि
उसकी उम्र रुक सी गई है
‘उम्र का जादू’ नाम के लोशन से

किसके निजी अंगों के लिए 
एक स्त्री बदन पर हाथ फेरकर कहती है कि
क्या आप भी चाहेंगे
उसकी तरह सुन्दर
निजी अंग,
बिलकुल निजी!