Saturday, 16 November 2019

मेट्रो स्टेशन


चौथा दिन

दोपहर 3 बजकर 42 मिनट

आज भी उसने राजिंदर नगर पुलिस स्टेशन की तरफ देखा और हँसा। पता नहीं क्यों। एक अलग हँसी। खिचड़ी में डाली गई अरहर, मटर, आलू, प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन, लौंग, नमक, मिर्च, चीनी और पता नहीं क्या क्या था उस हँसी में। छुट्टी लेकर पिछले तीन दिनों की तरह आज भी ऐसा करते हुए वह शंकर रोड पर पहुँचा। आज उसका वाटर पंप हाउस देखने का भी मन हुआ, पर बिना देखे सीधा आगे बढ़ गया। SGRH मार्ग पर। सीधा, बिलकुल सीधा। बाएं हाथ की तरफ चेतक पार्क की ओर मुड़ने तक, बिलकुल सीधा। उसे प्यास लगी। कंधे पर लटका लैपटॉप बैग भी भारी लगा. लेकिन वह चाय की दुकान पर कल की तरह आज भी नहीं रुका। गुरूद्वारे पर भी नहीं। करोल बा मेट्रो स्टेशन आने तक नहीं रुका। स्टेशन के अन्दर घुसने पर उसे मालूम हुआ कि मेट्रो कार्ड उसकी जेब में नहीं है। वह वापस लौटा, कमरे कि तरफ नहीं। पता नहीं क्यों। बिशप हाउस पहुँचा। अन्दर जाकर उसने किसी नन से, जो बाहर आ रही थी, पानी माँगा। वह तब तक हाँफ रहा था जब तक कि पवित्र जल उसे नहीं मिल गया, जब तक उसके गले के सूखे रेगिस्तान में नदी न बह गयी।

बिशप हाउस से बाहर आने पर भी वह नास्तिक ही था। स्टेशन पहुँचने पर उसने मेट्रो कार्ड ख़रीदा और राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पहुंचा। उसने बिना चेहरे वाले लोगों की भीड़ आज भी देखी। वह मेट्रो स्टेशन के अन्दर ही इधर से उधर किसी को ढूंढ रहा था। किसको? पता नहीं। कभी गेट नंबर तीन कभी, कभी चार कभी एक। गेट नंबर एक की तरफ बहुत कम जाता। एस्केलेटर का इस्तेमाल नहीं करता। दो घंटे लगातार ऐसा करने के बाद भी उसे कोई नहीं मिला। वह स्टेशन के बाहर आया। बहुत देर भटकी हुई नजरों से इधर उधर देखा।

फिर अंदर ऐसे आया मानों कुछ भूल गया हो। क्या? पता नहीं। उसे फ़ूड कॉर्नर पर भीड़ दिखाई दी। ‘6 बज गया? किसी ने उसकी घड़ी की ओर देखते हुए उससे पूछा। उसने बिना घड़ी देखे हाँ कहा। भीड़ बढ़ने लगी। भूख नहीं होने के बावजूद भी वह फ़ूड कॉर्नर पर गया, उसने बटर बेबी कॉर्न आर्डर किया और खाते हुए भीड़ की ओर देखता रहा। बिना चेहरे वाले स्टूडेंट्स खाते हुए हँस रहे थे। थकी हुई कामगार लड़कियाँ, जिन्हें वह उनके कपड़ों से ही पहचान पाया, बिना चेहरे के ही थी। वे ऑफिस को ढो चुकी थी, घर ढ़ोने जा रही थी। अधेड़ उम्र के लोग बहुत जल्दी में नहीं लगते थे, उनके चेहरे बहुत धुंधले थे आधा प्लेट खाने के बाद उसने बिल अदा किया।

थोड़े देर गेट नंबर चार की सीढ़ी की सीढ़ी पर खड़ा रहा। गुजरने वालों के चेहरे को खोजता, जैसे किसी को ढूँढ रहा हो, या एक-एक कर सबकी प्रोफाइल तैयार करनी हो, या कोई मिक्स पोट्रेट तैयार करना हो। बहुत देर तक ऐसा करता रहा। लेकिन कोई नहीं मिला। पुतले भाग रहे थे। फिर स्टेशन के बाहर दौड़ा जैसे किसी आदमी को पकड़ना हो, जिसके कंधे पर बैग लटक रहा हो, जिसका गेटउप बिलकुल उसकी तरह था। बिलकुल वही ड्रेस जो उसने पहनी थी, वही घडी जो उसके हाथ पर थी। उसने चारों ओर देखा, वह आदमी कहीं नहीं था हाथ में घड़ी बंधी होने पर भी उसने मोबाइल पर टाइम देखा। 08: 32: 17 पीएम। उसने पहली बार ध्यान दिया कि उस डिजिटल घडी में सेकंड का डिजिट बहुत बड़ा है। वह देखता रहा। 181920 …,   46…4748,   5859। 00 होने पर मिनट का अंक बदल गया और एक नई गिनती शुरू हो गई 01…  02… 03… । नया अंक अब 33 था। 

वह अंदर आ गया। दफ्तरों से लौटने वाले लोगों की भीड़ कम होने लगी। धक्का मुक्की के हालात नहीं थे, लेकिन सीट भी नहीं थी। लोग खड़े थे। वह मेट्रो में घुस गया। फिर लोगों की तरफ देखने लगा। वह किसी को देख नहीं पाया। बहुत देर बाद उसे कोने पर सीट मिली। उसने चप्पलें उतारी और पाँव ऊपर कर हाथों से पाँव बाँधे हुए घुटनों के बीच सर छुपा लिया। ऐसा करते हुए किसी ने भी उसे नहीं देखा। वह रोया नहीं बस दुबका रहा। बहुत देर बाद, कहीं, किसी कोमल हाथ को उसने अपने दाहिने हाथ के ऊपर महसूस किया। बिना सर उठाये उसने कहना शुरू किया जब तक कि पूरी मेट्रो उसके शब्दों से ऐसे भर गई जैसे अलमारी में रखे तह किए कपड़े।

रात 10 बजकर 49 मिनट

अब वह चुप हो गया। उसने सर उठाया। पूरी डिब्बे में केवल दो लोग थे और तह की गई बातें। वह नन की तरफ ऐसे लुढ़का जैसे लुढ़कना ही हो उसे। नन ने उसके भीगे गालों को सहलाया। उसे महसूस हुआ कि उसके हाथ केदारनाथ सिंह की कविता कह रहे हों-
'उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।
'

बिखरने से पहले उसे समेट दिया गया। करोल बाग स्टेशन पर मेट्रो रुकी। नन ने उसे मेट्रो स्टेशन से बाहर आने के लिए सहारा दिया। उसका हाथ पकड़े रखा। नन का चेहरा सूरजमुखी के फूल सा था, ऐसा उसने नहीं देखा; वह नन के साथ  चलता रहा। नन के कान उसी गीत को सुन रहे थे जिसका संगीत उसकी सिसकियों में था-
'Io che amo solo te।।।'*

नन ने सर पर बँधी बोनट और वेल चलते-चलते उतार फेंकी। क्रॉस भी कहीं फेंक दिया। वह अब चुप था, बस चल रहा था उसे ठण्ड महसूस हुई

*Italian Song, I love only you।।।
#दरअसल_दिल्ली


धीमी मौत

तहखाने में
तपता हूँ,
कोयले सा
जलता हूँ


बनता हूँ
टूटता हूँ
कार्बन-डाई-ऑक्साइड के माफ़िक,
बिखरता हूँ

घुलता हूँ,
कार्बन-मोनो-ऑक्साइड सा
पसरता हूँ

रेंगता हूँ
शनै-शनै नथुनों में,
फैलता हूँ
इस पार से उस पार,
लहू सा
टपकता हूँ

सोता हूँ...
नींद  में
गहरी नींद में
बहुत गहरी...
लम्बी
बहुत लम्बी...
मीठी
बहुत मीठी...

उससे भी अधिक कड़वी

उदासी

बंद दरवाजे सी
हर्फ़-दर-हर्फ़
फिलॉसॉफी,
उलझ रही
कोई अश्क़िया गुत्थी

ठोस इतनी
कोई सख़्त ताला,
फैला हुआ
झाला

बेरहमी

चुभती है पैरों में
सर कुरेदती
कोई कील-सी

मुस्कान चहरे पर
विषण्ण-सी

बच्चा


बच्चा बिलख रहा है
पता नहीं क्यों

नहीं सुनाई गई लोरी
दूध नहीं पिलाया गया
पूछा तो क्यों ही जाना था कि-
क्या हुआ
बच्चा ही तो था

बस जोर से चिल्लाया पिता
और
हमेशा कि तरह
आज भी चुप हो गया बच्चा




दवा


सर दर्द हुआ

गर्दन
काट दी गई

धड़ से अलग
दवा नहीं दी गई



ससपेंडर


बहुत समय से
नदी के पार जाने का मन था

बहुत सुना था
वहाँ के बारे में...
वहाँ के पहाड़
नदी
झरने
पेड़
पक्षी
वहाँ की खूबसूरती के बारे में...

पर क्या हुआ कल
रह गई है दिल में
एक कसक सी

एक धमाका
सन्नाटा
मुर्दा शांति
और
टूट गया पुल

नदी बहे जा रही है
केबल लटक रहीं हैं
, टूट गई हैं
ससपेंडर खड़े हैं
ताक रहे हैं
एक दूसरे का मुख
अलग-अलग छोरों से




जो वादा किया था...


1.      चुक-चुक चुक-चुक
ट्रेन चल रही है  


आखिरी डिब्बे में
बज रहा है रेडियो
‘जो वादा किया था वो निभाना पड़ेगा
रोके जमाना चाहे रोके खुदाई
तुमको आना पड़ेगा’
तभी आती है
अजीब सी आवाज
एक झटका-सा
महसूस होता है कि-
हो रही है ट्रेन गति कम
 
मैं बाहर झांकता हूँ
देखता हूँ
टूट गई हैं जंजीरे
आखिरी डिब्बा हो गया है अलग

धीमे होते-होते
रुक गया है ट्रेन का आखिरी डिब्बा

ट्रेन बढ़ रही है अपनी गति से
बज रहा है रेडियो
हम अपनी वफ़ा पे न इल्जाम लेंगे
तुम्हें दिल दिया है
तुम्हें जान भी देंगे