Tuesday 5 November 2013

दुर्भाग्य स्पर्श

था यह कल्पनातीत
पर वक्त के साथ बदल गया
सब कुछ
नहीं बदली तो वह थी गंगा का 'स्पर्श'
और दुर्भाग्य रेखाएं.

बरसन बीत गए
हो न पाया रंगहीन जल रंगहीन

यह श्याम मटमैला काला जल
कराता  है एहसास
इस बात का कि
रंगीन होकर भी कुछ चीजें भद्दी सी, उदास दिखती हैं
जो रंगहीन ही अच्छी थी.

सावन कि काली रात कि तरह
काला हो गया है पानी
शायद आँखे भी हो गयी हैं काली
इस 'स्पर्श' स्थली की
जहाँ विकास की पादुकाओं के तले
रोज रौंदा जाता है
भाग्य
ईर्ष्या की अग्नि में
जलते हुए रोज दिखता है
दुर्भाग्य..

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