Thursday 17 April 2014

जैंता एक दिन तो आलो - गिरदा


ततुक नी लगा उदेख 
घुनन मुनई नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो ऊ दिन यो दुनी में

चाहे हम नी ल्यै सकां
चाहे तुम नी ल्यै सकां
मगर क्वे तो ल्यालो ऊ दिन यो दुनी में
जैंता एक दिन तो आलो ऊ दिन यो दुनी में

जैदिन कठुलि रात ब्याली
कौ कड़ाहा पौ फटाली
जैंता एक दिन तो आलो ऊ दिन यो दुनी में

जैदिन नान-ठुलों नि रौलो
जै दिन त्योर-म्योर नि होलो
जैंता एक दिन तो आलो ऊ दिन यो दुनी में

जै दिन चोर नि फलाल
कैक जोर नि चलौल
जैंता एक दिन तो आलो ऊ दिन यो दुनी में

चाहे बोज्यू नि ल्यै सको
चाहे दाज्यू नि लै सको
मगर नान-तिन तो लालो ऊ दिन यो दुनी में
जैंता एक दिन तो आलो ऊ दिन यो दुनी में

Wednesday 9 April 2014

पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले - गोरख पाण्डेय

पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले
त बोले लगले ना
तोहके खेतवा दिअइबो
ओमें फसली उगइबो ।

बजडा के रोटिया पे देई-देई नुनवा
सोचलीं कि अब त बदली कनुनवा ।
अब जमीनदरवा के पनही न सहबो,
अब ना अकारथ बहे पाई खूनवा ।

दुसरे चुनउवा में जब उपरैलें त बोले लगले ना
तोहके कुँइयाँ खोनइबो
सब पियसिया मेटैबो
ईहवा से उड़ी- उड़ी ऊंहा जब गैलें
सोंचलीं ईहवा के बतिया भुलैले
हमनी के धीरे से जो मनवा परैलीं
जोर से कनुनिया-कनुनिया चिलैंले ।

तीसरे चुनउवा में चेहरा देखवलें त बोले लगले ना
तोहके महल उठैबो
ओमें बिजुरी लागैबों
चमकल बिजुरी त गोसैयां दुअरिया
हमरी झोपडिया मे घहरे अन्हरिया
सोंचलीं कि अब तक जेके चुनलीं
हमके बनावे सब काठ के पुतरिया ।

अबकी टपकिहें त कहबों कि देख तूं बहुत कइलना
तोहके अब ना थकईबो
अपने हथवा उठईबो
हथवा में हमरे फसलिया भरल बा
हथवा में हमरे लहरिया भरलि बा
एही हथवा से रुस औरी चीन देश में
लूट के किलन पर बिजुरिया गिरल बा ।
जब हम ईंहवो के किलवा ढहैबो त एही हाथें ना
तोहके मटिया मिलैबों
ललका झंडा फहरैबों
त एही हाथें ना
पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले ....

Monday 7 April 2014

कैथर कला की औरतें - गोरख पाण्डेय


तीज - ब्रत रखती धन पिसान करती थीं
गरीब की बीबी
गाँव भर की भाभी होती थीं
कैथर कला की औरतें

गली - मार खून पीकर सहती थीं
काला अक्षर
भैंस बराबर समझती थीं
लाल पगड़ी देखकर घर में
छिप जाती थीं
चूड़ियाँ पहनती थीं
होंठ सी कर रहती थीं
कैथर कला की औरतें

जुल्म बढ़ रहा था
गरीब - गुरबा एकजुट हो रहे थे
बगावत की लहर आ गई थी
इसी बीच एक दिन
नक्सलियों की धड - पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गईं
कैथर कला की औरतें

अरे , क्या हुआ ? क्या हुआ ?
इतनी सीढ़ी थीं गऊ जैसी
इस कदर अबला थीं
कैसे बंदूकें छीन लीं
पुलिस को भगा दिया कैसे ?
क्या से क्या हो गईं
कैथर कला की औरतें ?

यह तो बगावत है
राम - राम , घोर कलिजुग आ गया
औरत और लड़ाई ?
उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के खिलाफ यह जुर्रत ?

खैर , यह जो अभी - अभी
कैथर कला में छोटा सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमे
गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा
मिला कर
लड़ी थीं कैथर कला की औरतें
इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हों

इसे याद रखें
क्योंकि आने वाले समय में
जब किसी पर जोर - जबरदस्ती नहीं
की जा सकेगी
और जब सब लोग आज़ाद होंगे
और खुशहाल
तब सम्मानित
किया जायेगा जिन्हें
स्वतंत्रता की ओर से
उनकी पहली कतार में होंगी
कैथर कला की औरतें |

Wednesday 26 March 2014

मुल्ला नशरुद्दीन का दांत दर्द


मुल्ला नशरुद्दीन थे तो दन्त चिकित्सक पर उनके एक दांत में दर्द होता ही रहता था. दवा-दारू-दुआ करने पर भी दर्द थोड़े समय के लिए ही ठीक होता, स्थाई रूप से दर्द ख़त्म नहीं हुआ. कईयों के दांत उखाड़ने वाले मुल्ला नशरुद्दीन को उनके कई मित्रों ने उस एक दांत को उखाड़ लेने का सुझाव दिया पर उखाड़ते वक़्त होने वाले दर्द की कल्पना से ही उनका दर्द न करने वाला दांत भी दर्द करने लगता.

एक बार वह सर्कस में बन्दरों का नाच देख रहे थे. तभी उनके दांत में दर्द शुरू हो उठा. दर्द से वह छटपटा उठे. उन्होंने अपना हाथ गाल पर रखा और बाहर जाने को तैयार हुए. सहसा बन्दर से उन्हें हनुमान का ध्यान आया और उन्होंने हनुमान का स्मरण करना शुरू कर दिया. पूरे मन से ध्यान लगाने पर दर्द कम होता गया और पांच मिनट में ही दर्द ख़त्म हो गया. मुल्ला नशरुद्दीन ने इसके लिए हनुमान को धन्यवाद दिया और फिर से वही बंदरों का नाच देखने लगे.

पर उनका दांत दर्द थोड़े समय के लिए ही ठीक होता था, स्थाई रूप से नहीं. इसीलिये पांच घंटे बाद एक बार दर्द फिर शुरू हो गया. उन्होंने फिर से हनुमान का स्मरण करना शुरू कर दिया. जब आधे घंटे तक भी स्मरण करने के बाद दर्द कम नहीं हुआ तो वह झंड हो कर घर आ गए. पांच दिन तक उन्होंने कई बार हनुमान का स्मरण किया पर हुआ कुछ नहीं अंत में राहत दवा और दारू से ही मिली.

मुल्ला नशरुद्दीन चुप रहकर सोचते बहुत थे. सर्कसी दर्द ने एक बार फिर उनको को चुप रहकर सोचने के लिए मजबूर कर दिया. अब वे दांत दर्द से कम और इस बात से अधिक परेशान थे कि हनुमान ने एक बार दर्द ठीक किया पर दूसरी बार क्यों नहीं? जबकि दूसरी बार के दर्द में अधिक ध्यान और अधिक समय तक हनुमान का स्मरण उन्होंने किया. बहुत सोच विचार करने के बाद किसी से पूछ कर उन्होंने निश्चय किया कि वह हनुमान से ही यह प्रश्न करेगें जिसके लिए उन्हें हनुमान के दर्शन करने थे और दर्शन के लिए तपस्या.

मुल्ला नशरुद्दीन दवा और दारू के साथ घर से निकल पड़े. वह कोई अनपढ़ नहीं थे बाकायदा उनके पास देशी विदेशी विश्विद्यालयों की दर्जनों-किलो भर डिग्री पड़ी थी. इसी के चलते दूर घने जंगल में उन्हें तपस्या करना अटपटा महसूस हुआ. उसने फिर से चुप रह कर बहुत सोचा और शहर में तपस्या करने का निर्णय किसी से पूछ कर लिया. बस स्टैंड पर पहुचते ही एक प्रश्न उनके मन में कौंधा कि तपस्या कहाँ की जाय? वाशिंगटन या दिल्ली ?  बहुत सोच-विचार के बाद किसी से पूछ कर निर्णय लिया कि पहले पांच साल दिल्ली करते हैं और बाद के पांच-पांच साल के हिसाब से बाद में देखी जाएगी.

पांच साल दिल्ली में तपस्या करते हुए भी मुल्ला नशरुद्दीन के दांत बहुत बार दर्द हुआ. पर दवा और दारु ने उन्हें कभी कभी थोडा राहत पहुचाई. पांच साल तक तपस्या करने के बाद भी जब हनुमान ने दर्शन नहीं दिए तो किसी से पूछ कर उन्होंने खूब सोचा और फिर से दिल्ली में ही तपस्या की. फिर भी वही हाल. दवा और दारु भी पांच साल के साथ ख़त्म होने वाली थी हालत बड़ी बुरी थी मुल्ला नशरुद्दीन की. उसने फिर किसी से पूछ कर सोचा और अपने आप से कहा कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा.

इधर देवताओं ने हनुमान की छीछालेदर करनी शुरू कर दी कि वह अपने भक्त मुल्ला नशरुद्दीन को दर्शन क्यों नहीं दे रहा है जबकि वह दांत दर्द होते हुए भी तुम्हारी तपस्या कर रहा है. हनुमान ने भी बाकि देवताओं से कहा कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा. और मुल्ला नशरुद्दीन को दर्शन देने चल पड़े. हनुमान के दर्शनों से मुल्ला नशरुद्दीन बहुत खुश हुआ. हनुमान ने भी मुल्ला नशरुद्दीन की जाति, धर्म, आय का स्रोत, क्वालिफिकेशन आदि चीजे पूछने के बाद अंत में खुद को परेशान करने का कारण पूछा. मुल्ला नशरुद्दीन ने एक ही साँस में पूछा कि आपने एक बार दर्द ठीक किया पर दूसरी बार क्यों नहीं? जबकि दूसरी बार के दर्द में अधिक ध्यान और अधिक समय तक हनुमान का स्मरण उन्होंने किया. पहली बार किसी भक्त ने शहर में तपस्या की थी जिस कारण हनुमान को शहर की हवा लग गई थी, शहरी अंदाज में ही उन्होंने जवाब दिया “बिडू अपन क्या कोई डेंटिस्ट है क्या जो दांत दर्द ठीक करेगा?’ और चला गया. हनुमान का ऐसा सुनते ही मुल्ला नशरुद्दीन के दांत में एक बार फिर दर्द शुरू हो गया. वे फिर से झंड हो गए. इतिहास ने सच्ची में उसके साथ न्याय किया.


Monday 24 February 2014

लोकतंत्र


हमारे घर पर थे
चार बैल
आठ गायें
पांच भैंसें
कुछ छोटे-बड़े बछड़े
कुछ छोटे-बड़े काटूर भी
दस-एक बकरियां
दस-एक भेड़ें
पता नहीं और क्या क्या
और कितने कितने

हर साल
कुछ नए पैदा होते
कुछ मर जाते
जरुरत के हिसाब से
कुछ बेचे जाते
और कुछ ख़रीदे भी जाते
और जरुरत के हिसाब से ही
कुछ मार भी दिए जाते

जानवरों के मरने पर
सबसे ज्यादा 
दुःख दादी को होता
फिर भी वह अपने को दिलासा देती
‘जिसके घर में ज्यादा होगे
तो मरेंगे भी ज्यादा’
उन्हें सच्चे अर्थो में
भारतीय लोकतंत्र की पहचान थी.

आरक्षण



आरक्षण के विरोध में
मंच से वे बोल रहे थे
‘जब इन कटुओं को,
इन डुमड़ों को,
इन चमारों को,
इन भंगियों को
इनका कोटा दे दिया गया है
इनका आरक्षण दे दिया गया है
इनको भीख हमने दे दी है
क्यों ये हमारी सीटों को
हथियाते हैं?
क्यों ये हमारी सीटों पर
कब्ज़ा करते हैं?
क्यों ये हमारा गू
खाते हैं?
क्यों ये हमारा
मूत पीते हैं?’

पानी पी पी कर
वे विरोध कर रहे थे
माथे पर पसीना पोछ पोछ
कर
वे विरोध कर रहे थे

पर पानी पीने से पहले,
पसीना पोछने से पहले
बिना कुछ कहे
वे मांग कर चुके थे
अपने लिए आरक्षण की.

Friday 7 February 2014

ग़रीबी रेखा


एक रेखा खींच कर 
कहा गया
‘बिना बढ़ाये इसे बड़ा कीजिये!’

और खींच दी गई
एक छोटी रेखा
पहली के समान्तर

इसी खांचे में फिट
इसी नियम पर खींची गई
हर छोटी रेखा
ग़रीबी रेखा है!

स्त्री: गोरा बदन


किसके शब्दों को 
आवाज देकर
एक स्त्री कहती है कि
उसने पाया गोरा बदन और कोमल त्वचा
सिर्फ़ चार हफ़्तों में

किसके गले से
एक स्त्री मुस्कुराते हुए कहती है कि
उसकी उम्र रुक सी गई है
‘उम्र का जादू’ नाम के लोशन से

किसके निजी अंगों के लिए 
एक स्त्री बदन पर हाथ फेरकर कहती है कि
क्या आप भी चाहेंगे
उसकी तरह सुन्दर
निजी अंग,
बिलकुल निजी!

Sunday 5 January 2014

विषय- मजदूर, किसान और मेहनतकश


अगर मजदूर के लिए भूगोल होता  
तो उनके लिए मसूरी में बर्फ गिरती,
चाय की चुसकियों से 
महसूस की जाने वाली बारिश
उनके लिए होती,
उनकी थक चुकी पीठ को
सहलाने के लिए
सूरज केवल  गोवा बीच पर
गुनगुनी धूप नहीं छोड़ता;
 

भूख के ज्वालामुखी
छ: महीने में ही फटते,
पसीने की बाढ़
हर रोज नहीं दिखती,
नहीं होता
उनके शरीर का स्खलन,
न गर्म सांसों की लू
हर क्षण लहाती,
न ही उनकी
अक्षांश और देशांतर स्थितियां
हर रोज बदलती.
फिजिक्स किसान के लिए होती तो
खेतों में उनके द्वारा किया गया कार्य
कभी शून्य नहीं मापा जाता;
मापा जाता 
उनके सर पर सूरज का भार,  
बारिश के न होने से
उनकी धडकनों का वेग,
उनके शरीर में उबलने वाले खून का तापमान,
सुनी जाती कुछ श्रव्य तरंगे
उनके दिलों  से,
मापी जाती उनके आँखों की
कुछ ही फैदम की गहराई,
उनके चहरे
सारे रंगों को नहीं सोखते,
न उनकी आशाओं का
प्रकाश बुझता,
न ही उनके घरों की लाइन में
हमेशा बाधित करंट बहता.

गणित मेहनतकश हाथ पर
सीधी न सही
कुछ वक्र रेखाए जरुर खींचता, 
उनके शरीर की परिधि पूछने से पहले
फीता रुपयों का गुना भाग नहीं करता,
टोपोलॉजी का एक सीन तो
उनकी दुनियां के लिए आरक्षित होता
जिसका आयतन
सबसे पहले कैलकुलेट किया जाना था  
समय के चक्र वृद्धि व्याज को भी
उनके सपनों पर नहीं लगना था,  
न उनकी पीठ की वक्रता
पुल की रिंच का प्रतिबिम्ब होनी थी  
न ही उनकी वंचना को
झोपड़ी से महल
और महल से झोपड़ी के बीच
बार बार समाकलित किया जाना था
अगर गणित मेहनतकश के लिए होती

इतिहास तो उनका हो सकता था
जिन्होंने रखा गर्भगृह के ठीक ऊपर
चट्टान का चक्र
जिन्होंने की
मस्जिदों पर नक्काशी
जिन्होंने खुद को चिना ईशु से पहले
चर्चों पर
जिन्होंने नहीं बनाई ताजमहल सी कब्र  
सर्द चांदनी रातों के लिए
नहीं बनाई कोई सड़क
उनके घरों तक के लिए
नहीं खोदे तालाब
उनके गले के लिए
जो तब भूल गये
अपनी चीखों को शिलालेखों पर अंकित करना
जब वे बह रहे थे
समय की दरिया में
निर्माणाधीन पुलों से खाली हाथ
जब वे गिर रहे थे
क़ुतुबमिनार के अंतिम पत्थर के साथ
इतिहास उनका तो हो ही सकता था

पर न वे विषय होते हैं
न मजदूरों लिए
भूगोल होता है,
किसानों के लिए नहीं होती फिजिक्स
गणित मेहनतकशों की नहीं होती
इतिहास नहीं होता

हाँ उनकी होती है भाषा
मेहनत की भाषा
जो सुनी जा सकती है
उस हथौड़े की चोट पर
जो नहीं कर सकता फ़र्क
ऊँगली और पत्थर के बीच
जो महसूस की जा सकती है
पसीने से गीली हुई
मिट्टी की गंध से
जो देखी जा सकती है
चलती हुई घड़ी की अकड़न में
उसकी घुटन में

उनका होता है अर्थशास्त्र
मुनाफे का शास्त्र
जिसे पढ़ा जा सकता है
खेतों की मेंढों पर
टूटते पत्थरों से निकलती गर्म हवा में
मशीनों के बीच 


इतिहास


इतिहास पढ़िए
मजदूर-मालिक का
स्त्री-पुरुष का
दलित-सवर्ण का
खरीदी हुई किताबों से

मजदूर के पेट कटे
क्योंकि मजदूर के पेट बड़े थे
स्त्री की नाक कटी
क्योंकि वह स्त्री की नाक थी
और दलित !
दलित तो अछूत शब्द है
इस पर तो बात ही क्या करनी है

न यही सच है
न यही इतिहास है 

फसल


फसल
फसल पक गई है
तैयार है
बाज़ार में बिकने के लिए

खरीददार आए 
कुछ ने कहा मोटी है
कुछ ने कहा छोटी है
और चले गए
फसल वैसी ही रह गई
बंद कमरे में
किसी कोने में
आँगन में, किसी दर में
टूटते तारों को देखती
तसव्वुर सजाती
सपनों में झूलती, अँधेरी रात में
समय को रोकती
हवा को पूछती
दिशाओं को देखती, सूरज की छाव में

फिर खरीददार आए
कुछ ने कहा ऐसी है
कुछ ने कहा वैसी है
फसल वैसी ही रह गई
दुनिया से छिपती
खुद को छिपाती
दौड़ती भागती, उजले संसार में
हिलोरे लेती
लरजती
ज्वार का पेट भरती भूख में और प्यास में
कुछ खरीददार और आएँगे 
और चले जाएँगे
फसल वैसी ही रह जाएगी 
सनद-याफ्त
अम्वात
घर में और बाज़ार में

फसल
जो लड़की है
जो ऐसी है वैसी है
जो छोटी है मोटी है
किसान की बेटी है